हादसों की भीड़ में एक दिन बन कर रह गया
ना दिल समझा ना हम समझे
एक अधूरे पन्ने सा दिल में बस कर रह गया
वो सुबह का सूरज थे मद्धे मद्धे
किरणों की महिम्गी देख कर दिल सोचता रह गया
उस कारवां में और क्या जताते
बस एक पल था ओस की तरह दिल में बस कर रह गया
उस मंजर को हम काश बयां कर पाते
नजरो में क़ैद हो कर हमारे दिल में बस कर रह गया
जुबान पर आते आते वो फिर बेजुबान सा रह गया….
हवाओ के खेल में हम कही उड़ पाते
पर दिल हमारा किनारे पे बंधी कश्ती की तरह रह गया
वो उठती लहरों में हम धुल जाते
पर मौज सा उठ कर अल्फाजो में जम कर रह गया
वो दिन फिर हमारे दिल को छु कर कागज पे रह गया…!!!!
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